दीवाली पर पहली बार
अनरसा बनाया मैंने –
पापा ने रेसिपी भेजी थी – व्हाट्सऐप पर।
फ़िर फ़ोटो भेज दी पापा को –
वही, व्हाट्सऐप पर।
और हमेशा की तरह एक ख़याल आया –
काश! सचमुच खिला भी पाती
पापा को अनरसा।
काश कि मना पाती दीवाली सबके संग,
दिखा पाती अपनी बेटी को
ढाक पर झूमते काशफूल,
खील-बताशे, मिट्टी के दिए और
कुलिया-चुकिया वाली दीवाली,
छठ के घाट का सूर्योदय…

ऐसे कई काश की टीस से भरी है ज़िंदगी ।
काश! जीवन की भाग – दौड़ में
इतनी दूर न आये होते।
काश मन की बातों को
समय का पाबंद न होना पड़ता,
काश ज़रूरत न होती
हर कुछ कह कर बताने की –
कुछ ग़म-औ-ज़ज्बात मौन से भी बयां होता।
सपनों का न कोई दायरा होता।
काश अपनी सोंच के आगे निकल जाते।
काश, कुछ और देर सो पाते…
काश! कभी फ़ुरसत से रो पाते।

हर काश पर लेकिन जो थम जाएँ,
नए अनुभव, नयी अनुभूतियाँ कैसे पाएँगे?
कैसे देखेंगे दुनियाँ नयी,
नए दोस्त कहाँ बनाएँगे?
कहाँ ठहरता है मौसम कोई,
बाग़ के फ़ूल और पत्ते भी तो झड़ जाते हैं।
कहाँ ठिठकते हैं मग़र पेड़ कभी,
काश के रंज में धरती कहाँ रुक जाती है।
हाँ जिन्दगी में कुछ तो ख़ाली है,
फ़िर भी झोली नेमतें कई हैं।
हर काश में निहित कुछ हासिल भी है,
इसलिए, हर काश को दिल में बसा कर
हम भी आगे ही बढ़ते जाते हैं।