एक शाम अचानक देखा मैंने –
दो पंछी थे मुंडेर पर।
एक बैठा दुनियाँ देख रहा,
एक बैठा था मुँह फेर कर।
न मालूम एक साथ ही आये थे,
या अलग राह था उनको जाना।
कुछ रिश्ता भी था आपस में
या उनमें सब कुछ था अनजाना।
रिश्तों में मतलब क्या ढूंढें ,
पथ की बेकार ही क्यों सूझी ?
उस वक़्त अहम् दो पात्र वहाँ –
मुंडेर पर बैठे दो पंछी।
कुछ कही उन्होंने अपनी- अपनी,
कुछ सुना उन्होंने धीरज धर।
बाँटी दिन-भर की चिंताएँ ,
कुछ बोझ उतारे उस छत पर।
किन काँटों पर उड़ आये थे;
किन फूलों पर मँडराये थे;
दिन भर किनसे टकराये थे;
मेहनत कर, थक कर आये थे।
और शाम ढले से पहले
कुछ साँसे भर, कुछ थकन मिटा,
वो घर को जाने को ठहरे थे,
यात्रा को अल्पविराम लगा।
सो कहा एक ने दूजे से,
मन मेरा हल्का हुआ ज़रा।
कुछ बातें जो कर ली तुमसे
चिंताओं को कुछ ठौर मिला।
पर देखो अब है शाम घिरी,
और गहन अँधेरा छाता है।
इन रातों के सन्नाटों में
मन मेरा बहुत घबराता है।
अब चलो डगर की राह करें,
इससे पहले कि रात ढले।
साँझ रहे घर ना पहुँचे तो
कोहरा हमको लील न लें।
तब कहा दूसरे पंछी ने;
हाँ, शाम ज़रा गहराई है।
अस्पृश्य, अवांछित और अथाह
यह निशा विश्व पर छाई है।
अदम्य, अवज्ञ, अनिमंत्रित ,
भय, दुःख, क्रंदन भर लायी है।
पर कितनी भी हो रात गहन
क्या सूरज से लड़ पायी है?
जो आशंकाओं का अन्न मिला,
यह धुंध फैलती जाएगी।
भय की, चिंताओं की शह पा
कालिमा ये बढ़ती जाएगी।
मत हो उदास, आकुल-व्याकुल,
तुम नहीं अकेले – साथ सभी।
कितना भी हो अज्ञेय तिमिर,
तुम नहीं छोड़ना आस कभी।
कुछ होंगी कठिन परीक्षाएँ ,
कुछ नयी चुनौती आएँगी।
हम बदलेंगे कुछ नियम-तरीक़े
कुछ हमें बदल यह जाएँगी।
पर कितने भी तेवर कर ले ,
कब तलक रात रह पायेगी ?
मधुर, सौम्य और सुभग गुलाबी
सुबह फिर से आएगी।
समय का चक्र रात और दिन का आना जाना है,
शाम आया है तो सुबह भी जरूर आएगी।
एक बैठा दुनियाँ देख रहा,
एक बैठा था मुँह फेर कर।
बहुत अच्छी लगी ये पँक्तियाँ।
बहुत बहुत धन्यवाद
ख़ुबसूरत 🧡🧡