कुछ दिनों से बारिश बहुत हो रही है यहाँ;
और कुछ दिनों से
तुम बहुत याद आ रही हो मुझे।
झमाझम बूँदें गिरती हैं
और खो जाती हैं पृथ्वी के गर्भ में,
जैसे खो गयी तुम उस दिन अनल में।
यूँ तो अक्सर ही याद आती हो तुम,
पर कुछ दिनों से कंठ में अटक गयी हो,
और जो बूँदें मेरी आखों तक नहीं आ पातीं,
वो शायद आकाश से गिर रही हैं, धुआँधार।
तुम थी ही इतनी प्यारी
कि आकाश भी अब तक रोता है।
सगी नहीं थी तुम,
पर बहुत प्रिय बहन थी मेरी।
मेरी पहली सखी;
मोहिनी थी तुम्हारी वो बड़ी–बड़ी, मासूम आँखें,
तुम्हारा मधुर स्वर और आचरण।
शायद ही कोई था
जो तुम्हारे मोह से अछूता था।
कैरी भरी आम की डालों पर उल्टे लटक कर
कई सपने देखे थे तुम्हारे साथ।
मैं आज भी वो सपने पूरे कर रही हूँ –
तुम्हारे हिस्से के भी ….
तुम सारे अधूरे जो छोड़ गयी …
पूछती हूँ आज भी खुद से ,
इस तरह, चुप –चाप ही क्यों चली गयी ?
क्यों कभी भी, कुछ भी नहीं कहा मुझसे?
क्यों इतनी परायी हो गई मैं?
सचमुच शादी के बाद लड़कियों के लिए
क्या सारे रिश्ते पराये हो जाते हैं?
पर तुम्हें दोष देने का अधिकार भी नहीं मुझे।
उन्नीस की थी तुम।
अपने हाथों से तुम्हें शादी का जोड़ा पहनाया था,
श्रृंगार कर तुम्हारा,
वरमाला दी थी तुम्हारे हाथों में ,
और फूल बरसाए थे तुम्हारे मंडप पर।
तुम्हारे खुशहाल जीवन की प्रार्थना की थी,
फिर मैं चल पड़ी थी
सपनों के उस देश की तरफ,
जहाँ पीछे देखने का प्रावधान नहीं होता।
मैंने सोंचा था
कि तुम्हारा दाम्पत्य भी तुम्हारे ही जैसा होगा –
स्नेह के स्नेह से परिपूर्ण।
पितृसत्ता वहाँ फ़न फैलाये खड़ी थी,
इसका न मुझे भान था, न तुमने बताया कभी।
एक बेटी बर्दाश्त कर ली गयी जैसे–तैसे ,
पर दूसरी की जगह न थी उस परिवार में।
सो तुम सहती गयी बार–बार,
मौन, अपने भ्रूण पर वार;
और एक दिन … अपनी ही साँसों से हार गयी ….
क्यों तुमने कहा नहीं किसी से
कि निकाल ले जाये तुम्हें उस गर्त से ?
क्यों लड़ी नहीं तुम अपनी साँसों से
अपने सपनों, अपनी बच्ची के लिए ?
पर दोष तुम्हारा नहीं,
दोष है उस शिक्षा का,
जो विदाई के समय अपनी बेटियों को देते हैं हम –
डोली जा रही है बेटी, ध्यान रहे,
अब ससुराल से तुम्हारी अर्थी ही निकले।
अक्षरश मान गयी तुम उस बात को !
सी लिया अपने दर्द, अपनी सिसकियों को।
दोष है उस सोंच की,
जो माँ–बाप को यह सिखाती है
कि कन्यादान ही सबसे बड़ा धर्म है –
और बेटियाँ ज़्यादा पढ़–लिख गयीं
तो ब्याही नहीं जाएँगी।
सो तुमने अपने सपनों को रख दिया
धुल सनी किसी ताक पर,
और चल पड़ी किसी अजनबी का घर बसाने,
अपने माता-पिता को पुण्य दिलाने!
दोष है उस समझ की जो आज भी
बेटियों को बेटों से कम समझती है।
और तुमने अनचाहे ही, मान लिया यह भी।
उस वंश को वंशज देने की अर्चना करने लगी,
जिस वंश ने तुमसे ही
सौतेला व्यवहार किया सदा!
कभी सोचती हूँ, काश!
कोई तुमसे एक बार यह कह देता,
कि सशक्त हो तुम, निर्भर न रहो,
हम साथ हैं तुम्हारे हर सुख-दुख, हर फ़ैसले में –
तो तुम साहस पाती।
काश कि मैं समय रहते जान पाती,
हाथ बढ़ा कर खींच पाती तुम्हें उस नर्क से बाहर,
तो आज तुम हमारे साथ होती ….
तब झमाझम बारिश होती तो
हम एक दूसरे से बातें करते,
और आम के बौर भरी डालियों पर पड़े
लकड़ी के तख्तों के झूलों के
काल्पनिक हिलोरें लेते।
जो तुम झोंका देने नहीं खड़ी हो मेरे पीछे
तो वो झूले अब खाली हैं –
और बारिशें तुम्हारे अधूरे सपनों के
टूटने की आवाज़ सी गिरती हैं ….
तुम्हारे–मेरे वो सपने
जिन्हें पूरा करने को
तुम मुझे अकेला छोड़ गयी हो।
🙌🙌
यथार्थ और बहुत ही मार्मिक रचना है..🌸🌸😓
जी, आज तक यह दर्द भूले नहीं भूलता