मन।
उद्विग्न कभी उच्छृंखल मन।
है शांत कभी फिर चंचल मन।
वो भरी दुपहरी दौड़ रहा,
कुछ पाने को, कर जाने को –
एक छॉंव घनेरी ढूंढता मन।
जूझ रहा है प्रपंचो से
वो सत्ता के गलियारों में –
कुछ साज़ पुराने सुनता मन।
फिर महफ़िल में, मयखानों में,
संध्या को, मधु के प्यालों में –
कीबोर्ड की टिक टिक सुनता मन।
कुछ होना है कुछ हुआ नहीं,
वो जोड़ जोड़ लिखता है बही –
और चित्रपट्टिका बुनता मन।
अपशब्द कभी वह पीता है,
अपमान घोंट कर जीता है –
पर खुल कर हंसना चाहे मन।
शतरंज की गोटें बिछी हुईं,
बस एक चाल पर निश्चित मात –
विश्रम्भ कुलांचे भरता मन।
क्या असंभव भी कार्य कोई ?
है जगह कोई क्या दुर्गम भी ?
संभव सब कुछ जो ठान ले मन।
उद्विग्न कभी उच्छृंखल मन,
असीम, अपार, अनंत है मन।