अकेले ही हम आये थे
अकेले ही तो चलना है
इन इंसानों की भीड़ों से
अकेले ही गुजरना है

फ़क़त हम ढूंढते रहते
गुफ़्तगू को कोई यारा
महफ़िलों में तलफ़ होने
को दिल रोता है बेचारा

जो साथी कोई मिल जाता
वहम् हम पाल लेते हैं
वफाओं की ज़मीनों पर
बगीचा दाल लेते हैं

कोई चाहे भी तो कितना
भला वो साथ दे पाता?
भला रूहों का भी कोई
कहीं क्या काफिला होता?

जनम पर कहकशे जिनके
जनाज़े पर नहीं होते
दफ़न कर कन्धा देकर वो
हमें कर ख़ाक हैं रोते

सलाहें जितनी भी ले लो
इरादा हमको करना है
फैसलों के नतीजों को
अदा तो हमको करना है

हमारे हिस्से की सारी
ख़ुशी हम बाँट सकते क्या?
किया जो हमने उसका क्या
असर भी काट सकते क्या?

हैं क्यों हम ढूंढते फिर भी
जवाबों को, सवालों में?
जकड़ना चाहते हैं क्यूँ
ज़मीं पर रहने वालों में?